12th Sociology Ka Subjective Question 2024 | Sociology Class 12 all Chapter Subjective Question 2024

12th Sociology Ka Subjective Question 2024 :- यदि आप लोग Bihar Board Class 12th Sociology Question Paper 2024 की तैयारी कर रहे हैं तो यहां पर आपको Sociology Class 12 all Chapter Subjective Questions 2024 का महत्वपूर्ण प्रश्न दिया गया है जो बोर्ड परीक्षा में पूछे जा सकते हैं | Sociology Class 12 important Questions PDF in Hindi


12th Sociology Ka Subjective Question 2024

1. बिहार के विशेष संदर्भ में पंचायती राज व्यवस्था के गुण-दोषों की चर्चा करें। 

उत्तर 73 वें संविधान संशोधन के बाद बिहार में पंचायतों के स्वरूप में काफी परिवर्तन हुआ | बिहार राज्य पंचायत अधिनियम 1993 ग्राम सभा को सशक्त बनाने के लिए अनेक प्रावधान पर बल दिया। जन सहभागिता सिर्फ ग्राम सभा की बैठक में पंचायत के क्रियाकलाप तक सीमित न होकर व्यापक रूप से बनायी। अप्रैल 2001 में पंचायतीराज संस्थाओं के चुनाव में दलित और महिला प्रतिनिधियों की संख्या भी बढ़ायी गयी। बिहार में 50 प्रतिशत स्थान महिलाओं के लिए सुरक्षित किया गया । बिहार सरकार ने अति पिछड़े लोगों की भी पंचायतों में आरक्षण का प्रावधान किया। अतः भारत के अन्य राज्यों के अपेक्षा बिहार में पंचायती राज्य संस्था ने पिछड़ों एवं महिलाओं में आरक्षण का विशेष रूप से प्रावधान किया गया।

बिहार में पंचायती राज व्यवस्था के गुण निम्नलिखित हैं

(i) पंचायती राज व्यवस्था ठोस आधार प्रदान करती है। इसके माध्यम से शासन व्यवस्था जनता के हाथ में रहती है जिससे ग्रामीणों में लोकतांत्रिक संगठनों के प्रति रुचि जागृत होती है।

(ii) पंचायत राज व्यवस्था देश का भावी नेतृत्व तैयार करती है, भावी विधायकों तथा मंत्रियों को प्रारंभिक राजकाज का अनुभव तथा प्रशिक्षण देती है जिससे उससे जुड़े लोग ग्रामीण समुदाय की समस्याओं से अवगत हो पाते हैं।

(iii) ग्रामों में उचित नेतृत्व एवं विकास योजनाओं के कार्यान्वयन में जनता की भागीदारी द्वारा पंचायतीराज संस्थाएँ लोकतंत्र में जनता की दिलचस्पी बढ़ाती है।

(iv) पंचायत की संस्थाएँ राज्य एवं केंद्र सरकारों की स्थानीय समस्याओं का बोझ कम करती हैं।

(v) पंचायतीराज कानून के तहत ग्रामसभा का चुनाव बालिग मताधिकार द्वारा होता है जिसमें बिना किसी भेदभाव के सभी बालिग भाग लेते हैं। इसके आधार पर ग्रामीण जीवन को व्यवस्थित किया जा सकता है।

पंचायती राज के निम्नलिखित दोष हैं

(i) पंचायती राज संस्थाओं के कार्यों की सूची इतनी लंबी है कि उनको सफलतापूर्वक पूरा करना अत्यधिक कठिन है। प्रत्येक स्तर पर पंचायत के निर्वाचित और सरकार के अधिकारियों में समन्वय स्थापित करने में त्रुटि है।

 (ii) सरकारी पदाधिकारियों का परंपरागत प्रशासनिक दृष्टिकोण में बदलाव पूर्णत: नहीं हो सका है। उनमें प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण की नीति एवं कार्यक्रम उस आस्था का अभाव देखा जा रहा है जिसकी बुनियाद पर पंचायती राज व्यवस्था का कार्य सफल नहीं हो पाता है।

(iii) जातिवाद के कारण पंचायतें विकास कार्य में रुचि लेने और उसे सफल बनाने के बजाय गुटबंदी का अखाड़ा बन गई है।


2. राज्य से आप क्या समझते हैं? वर्तमान भारत में राज्य के प्रमुख आधारों की विवेचना करें। 

उत्तर ⇒ अरस्तु एवं सिसरो ने राज्य को परिवारों एवं ग्रामों के ऐसे समुदाय के रूप में परिभाषित किया जो एक आत्मनिर्भर जीवन व्यतीत करता है। कुछ राजनीतिशास्त्रियों का विचार है कि “एक निश्चित भू-भाग में राजनीतिक दृष्टि से संगठित व्यक्तियों के समूह को राज्य कहा जाता है। जबकि यह परिभाषा विशेष अर्थ में अधूरा रह जाता है। वास्तव में राज्य एक ऐसा बड़ा समुदाय है जिसका एक निश्चित भू-भाग होता है तथा जो बाहरी नियंत्रण से मुक्त रहकर

राज्य के आधार — भारतीय संविधान द्वारा राज्य के जिन आधारों को स्पष्ट किया गया है उन्हें निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है

 (i) प्रभुसत्ता (Sovereignty)– प्रभुसत्ता का अर्थ राज्य की एक ऐसी सत्ता से है, जो किसी भी दूसरे राज्य से पूरी तरह स्वतन्त्र होती है तथा जिसका उपयोग राज्य अपने कानूनों के अनुसार किसी भी तरह कर सकता है।

 (ii) संसदीय लोकतंत्र (Parliamentry Democracy)– भारत के संविधान में भारत को एक संसदीय लोकतंत्र घोषित किया गया है। यह वह व्यवस्था है जिससे राज्य की सम्पूर्ण शक्ति संसद के पास रहती है। संसद वह सर्वोच्च केन्द्रीय विधायिका है जिसका निर्माण जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों से होता है। भारत में संसद के दो स्वरूप — लोकसभा और राज्यसभा हैं।

 (iii) संसदीय संरचना (Federal Structure)– एक राज्य के रूप में संघीय संरचना भारत की प्रमुख विशेषता है। संघीय संरचना में सरकार का गठन दो स्तरों पर होता है— केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें । भारतीय संविधान में केन्द्र और राज्य सरकारों की शक्तियों व कार्यक्षेत्रों का स्पष्ट विभाजन किया गया है, जिससे दोनों स्तर के सरकारों के कार्यों के बीच हस्तक्षेप न हो सके।

(iv) धर्मनिरपेक्षता (Secularism)– संविधान में भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में घोषित किया गया है। जिसमें सभी धर्मों के प्रति समानता की भावना से है। देश के सभी नागरिक अपनी इच्छा से किसी भी धर्म को मानने और उसके विश्वासों के अनुसार व्यवहार करने के लिए स्वतन्त्र होते हैं।

(v) न्याय, स्वतन्त्रता और समानता– भारतीय संविधान में नीति निर्देशक सिद्धांतों द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि भारत की राज्य व्यवस्था का आधार न्याय, स्वतन्त्रता और समानता है।

 (vi) बहुदलीय प्रणाली (Multi Party System) — लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था में सरकार का निर्माण करने, सरकार के निर्णयों को प्रभावित करने और जनता में राजनीतिक चेतना विकसित करने में राजनीतिक दलों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसलिए भारत में बहुदलीय प्रणाली को मान्यता दी गई है। जिसके फलस्वरूप यहाँ क्षेत्र, भाषा, धर्म और जाति के आधार पर अनेक राजनीतिक दल का गठन हुआ है।


3. साम्प्रदायिकता क्या है? भारत में साम्प्रदायिकता के दुष्परिणामों की विवेचना करें।

उत्तर ⇒ साम्प्रदायिकता का अर्थ धर्म का उन्माद खड़ा करके लोगों की भावनाओं को भड़काना और आपस में राष्ट्रीयता की बजाय धर्म को हौआ खड़ा करना है।

    साम्प्रदायिकता ने राष्ट्र निर्माण में निम्नलिखित प्रकार की बाधा उत्पन्न की है

(i) राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा – साम्प्रदायिकता सदैव ही राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक रही है। विभिन्न सम्प्रदाय के लोगों में अलगाव के भाव पाए जाते हैं। अतः वे कभी भी सारे देश को एक बनाने एवं राष्ट्रीय उत्थान की बात नहीं सोंचते।

 (ii) तनाव एवं संघर्ष – साम्प्रदायिकता के कारण किसी भी सम्प्रदाय का विकास तो नहीं हुआ, किन्तु उसके कारण विभिन्न सम्प्रदायों के बीच अविश्वास, घृणा, पूर्वाग्रह एवं संघर्ष अवश्य पैदा हुए। साम्प्रदायिक दंगों एवं उपद्रवों

(iii) जन-धन की हानि – के कारण हजारों लोगों की जाने गयी है, अनेक के साथ मारपीट एवं अनैतिक व्यवहार हुए हैं। मकान, दुकान, सरकारी कार्यालय, स्कूल, भवन, रेल, डाकतार, कार्यालयों में आग लगा दी जाती है। जिसके कारण अरबों रुपयों की सम्पत्ति नष्ट हो जाती है, और आर्थिक विकास अवरुद्ध

(iv) राजनीतिक दुष्परिणाम – साम्प्रदायिकता के कारण जाता है। देश में अस्थिरता उत्पन्न होती है। लोगों का प्रशासन एवं सरकार के प्रति विश्वास उठ जाता है।

(v) आर्थिक विकास में बाधक — साम्प्रदायिकता के कारण समाज की आर्थिक प्रगति अवरुद्ध हुई है। उपद्रवों के समय कई कारखानों एवं उद्योगों में तोड़-फोड़ एवं आगजनी की घटनाओं से निर्माण कार्य बन्द हो जाता है। ऐसे क्षेत्रों में पूँजीपति पूँजी नहीं लगाना चाहते जहाँ साम्प्रदायिक तनाव पैदा होते रहते हैं। इससे उस क्षेत्र का विकास रुक जाता है।

(vi) असामाजिक तत्वों में वृद्धि – साम्प्रदायिक संघर्षों एव उपद्रवो के समय असामाजिक तत्वों को खुलकर खेलने का मौका मिलता है। प्रशासन की ढिलाई का पूरा-पूरा लाभ उठाते हैं और वे इस प्रकार के अवसर के ताक में रहते हैं कि जब साम्प्रदायिकता की आग भड़के तब वे लूटपाट कर सकें। जिन लोगों से उनकी व्यक्तिगत दुश्मनी है उनसे बदला ले सके।

Bihar Board Class 12th Sociology Question Paper 2024


4. पर्यावरण आंदोलन का क्या अर्थ है? भारत के पर्यावरण आंदोलन की चर्चा करें। 

उत्तर ⇒  वर्तमान में मानव सभ्यता के सम्मुख एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है जिसमें एक ओर तो आर्थिक विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अधिकाधिक प्रयोग आवश्यक हो गया है। वहीं दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों के अप्रत्यक्ष दोहन के कारण मानव अस्तित्व के लिए उत्पन्न होने वाले खतरे को भी दूर करना आवश्यक है। अतः वर्तमान समाज में पर्यावरण के बारे में एक नवीन प्रकार की चेतना उत्पन्न हुई है, जिससे समाज में एक नवीन आंदोलन की शुरुआत हुई। इसी को पर्यावरणीय आंदोलन (Environmental Movement) कहा जाता है।

   भारत में पर्यावरण संरक्षण का विचार सदियों से पुराना है। पर्यावरण संरक्षण आंदोलन की शुरुआत मूलत: राजस्थान से मानी जाती है। राजस्थान के खेजरली गाँव में पर्यावरण आंदोलन प्रारम्भ हुआ था। विश्नोई जाति के लोग वहाँ के पेड़ों को देवता मानते हैं, उनलोगों ने महाराजा को पेड़ काटने से मना कर दिया। 1972 में उत्तरप्रदेश में चिपको आन्दोलन पर्यावरण की रक्षा के लिए काफी प्रचलित हुआ है। चमोली के जंगल में लकड़ी काटने का विरोध वहाँ की स्त्रियाँ डट कर करने लगीं जिसने एक आंदोलन का रूप धारण कर लिया।

   बाद में जब 1970 में बाढ़ आने से एक गाँव पूरी तरह बह गया तो लोगों का ध्यान उस ओर गया जिससे चमोली में पर्यावरणीय आंदोलन की शुरुआत हुई। इसके अंतर्गत चमोली ग्राम स्वराज्य संघ की स्थापना हुई। चमोली से धीरे-धीरे पूरे गढ़वाल और कुमाऊनी इलाकों में फैल गई। इस तरह चिपको आंदोलन हिमालय क्षेत्र में फैल गया। लोगों ने वृक्ष लगाओ आंदोलन की शुरुआत की।


5. मौलिक अधिकार क्या है? मौलिक अधिकार और कर्तव्य का उल्लेख करें।

उत्तर ⇒ भारत के संविधान में देश से सभी नागरिकों को कुछ बुनियादी अधिकार जैसे समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, संस्कृति और शिक्षा का अधिकार तथा संवैधानिक उपचार का अधिकार दिए गए हैं। इन्हीं अधिकारों को मौलिक अधिकार कहा जाता है। इन अधिकारों की चर्चा निम्नलिखित रूप से की जा सकती है—

  (i) समता का अधिकार — संविधान के द्वारा यह प्रावधान किया गया कि कानून के सामने सभी लोग समान हैं। उनके बीच धर्म, वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जायेगा। समानता का अधिकार सभी नागरिकों को रोजगार के समान अवसर देता है।

 (ii) स्वतंत्रता का अधिकार — इसके अंतर्गत अनेक ऐसे अधिकारों का उल्लेख है जिनकी सहायता से लोग एक स्वतंत्र जीवन बिता सके। इनमें मुख्य हैं—–(a) अपने विचारों को स्वतंत्रता के साथ व्यक्त करने का अधिकार (b) अपनी कोई भी उपयोगी संस्था या संगठन बनाने का अधि कार (c) देश के किसी भी हिस्से में आने-जाने का अधिकार (d) भारत के किसी भी हिस्से में रहने का अधिकार (e) किसी भी मान्यता व्यवसाय के द्वारा आजीविका प्राप्त करने का अधिकार ।

(iii) शोषण से रक्षा का अधिकार — यह व्यवस्था की गई कि किसी व्यक्ति से बेगार नहीं ली जा सकती, बाल श्रमिकों का शोषण नहीं किया जा सकता तथा किसी भी श्रेणी के व्यक्ति को खरीदा या बेचा नहीं जा सकता। इस अधिकार को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार द्वारा अनेक कानून बनाये गए।

(iv) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार — प्रत्येक व्यक्ति का यह मौलिक अधिकार है वह बिना दबाव के किसी भी धर्म के अनुसार व्यवहार कर सकता है और उनका प्रचार कर सकता है।

(v) संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार — देश के प्रत्येक वर्ग के नागरिक का यह अधि कार है कि वह अपनी संस्कृति, भाषा और लिपि की रक्षा करने का अधिकार दिया है।

मूल कर्तव्य (Fundamental duties ) –

(i) संविधान का पालन करें, संविधान के आदर्शों, संविधानिक संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का सम्मान करें।

(ii) स्वतंत्रता संग्राम को प्रेरित करने वाले उच्चादर्शों को हृदय में बसायें तथा उनका पालन करें।

(iii) भारत की संप्रभुता, एकता और अखण्डता की रक्षा करें तथा उसे अक्षुण्ण बनाए रखें।

(iv) देश की रक्षा करें तथा आवश्यकता पड़ने पर राष्ट्र की सेवा करें।

(v) सम्पूर्ण भारतीय निवासियों में समरसता और भ्रातृत्व की भावना निर्मित करें, जो भाषा, धर्म, जाति, मूलवंश प्रदेश अथवा वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो ।

(vi) अपनी संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्त्व समझते हुए उसकी रक्षा करें।

(vii) सार्वजनिक संपति की सुरक्षा करें तथा हिंसा का परित्याग करें।


6. अनेकता में एकता से आप क्या समझते हैं? भारतीय समाज में संदर्भ में इसकी चर्चा करें 

उत्तर ⇒  भारत एक ऐसा समाज है जो अनेकता में एकता करने वाला अनुपम उदाहरण है। बहुत प्राचीन काल से ही भारतीय समाज अनेक प्रजातियों, जातियों, धर्मों, भाषाओं तथा विश्वासों का समन्वय स्थल रहा है। विभिन्न क्षेत्रों की जलवायु और सांस्कृतिक विशेषताओं में भी बहुत भिन्नताएँ हैं, इसके बाद भी भारतीय समाज में एकता देखने को मिलती है।

भारतीय समाज के संदर्भ में :

(i) जनसंख्या के दृष्टिकोण से भारत एक विशाल देश है जिनकी कुल जनसंख्या 2011 के अनुसार 121 करोड़ के लगभग हो चुका है। यह कई राज्यों में विभाजित है। राज्यों में जनसंख्या का असमान वितरण है। विभिन्न क्षेत्रों में साक्षरता प्रति व्यक्ति आय, स्त्री-पुरुष अनुपात तथा प्रजातीय लक्षणों में भी भिन्नता पायी जाती है।

(ii) भाषायी आधार पर प्रत्येक 100 किमी पर एक नई भाषा की शुरुआत होती है। भाषायी आधार पर ही भारत के कई राज्यों का गठन किया जाता है।

(iii) धार्मिक विविधता के अंतर्गत भारत में अनेक धर्मों के लोग निवास करते हैं। प्रत्येक धर्म अनेक शाखाओं, संप्रदायों और पंथों में विभाजित है।

(iv) सांस्कृतिक आधार पर भी भारतीय समाज में विभिन्न समुदायों की परंपराओं, खान-पान, वेश-भूषा, कला, नैतिक मूल्यों आदि में भिन्नता पायी जाती है।

(v) प्राकृतिक विविधता के अंतर्गत भारतीय समाज के विभिन्न क्षेत्रों में एक ही समय पर सभी ऋतुओं की जलवायु पायी जा सकती है।

Sociology Class 12 all Chapter Subjective Questions


7. समाज सुधार आंदोलन क्या है? भारतीय समाज पर सुधार आन्दोलनों के सामाजिक प्रभावों का वर्णन करें।

उत्तर ⇒  सुधार आंदोलन समाज के व्यापक ढाँचे के अन्तर्गत निहित सामाजिक सम्बन्धों, मूल्यों और नियमों में विशिष्ट अथवा सुधार के लिए चलाये जाते हैं। सुधारवादी आंदोलन प्रायः वैध-साधनों का प्रयोग करते हैं और समाज के वर्तमान ढाँचे में बिना किसी छेड़-छाड़ के परिवर्तन लाने की कोशिश करते हैं। सुधार आंदोलन सामाजिक आंदोलन का एक विशेष रूप हैं। इससे स्पष्ट है कि सामाजिक आंदोलन एक समाज के कुछ व्यक्तियों द्वारा किया जाने वाला सामूहिक प्रयास है। इसका उद्देश्य कुछ विशेष समस्याओं का समाधान करना होता है। प्रत्येक आंदोलन एक विशेष विचारधारा पर आधारित होता है। सुधार आंदोलन सामाजिक आंदोलन का सबसे मुख्य रूप हैं।

सामाजिक सुधार आंदोलनों के सामाजिक प्रभाव —

(i) धार्मिक समन्वय तथा मानवतावाद — राजा राममोहन राय के ब्रह्म समाज से लेकर स्वतंत्रता आन्दोलन के समय तक सभी सुधारकों ने हिन्दू धर्म के आचारों में इस तरह परिवर्तन करने पर बल दिया जिससे हिन्दू धर्म को अधिक सहिष्णु और मानवतावादी बनाया जा सके।

(ii) जातिगत भेदभाव में कमी — सुधार आंदोलनों का एक मुख्य उद्देश्य जाति व्यवस्था के नियमों से उत्पन्न होने वाली सामाजिक असमानताओं, छुआछूत और निम्न जातियों के शोषण का कड़ा विरोध करना था। ब्रह्म समाज, आर्य समाज तथा रामकृष्ण मिशन के प्रयत्नों से ब्राह्मणों की अलौकिक शक्तियों को अस्वीकार किया जाने लगा।

(iii) वैवाहिक कुरीतियों में सुधार भारत की सामाजिक संरचना को विघटित करने में विवाह से संबंधित कुरीतियाँ सबसे अधिक उत्तरदायी थी। बाल विवाह, बहुपत्नी-विवाह, दहेज-प्रथा, विधवा पुनर्विवाह पर नियंत्रण, बेमेल विवाह, अन्तर्जातीय विवाहों पर नियंत्रण एवं सुधार हुआ।

(iv) स्त्रियों की स्थिति में सुधार — समाज सुधार आंदोलनों का मुख्य प्रभाव स्त्रियों की स्थिति में होने वाले व्यापक परिवर्तन के रूप में देखने को मिलता है। आर्य समाज ने धार्मिक “क्रियाओं में स्त्रियों की सहभागिता बढ़ानी शुरू हुई तथा स्त्री शिक्षा के लिए अनेक शिक्षण संस्थाएँ स्थापित कर दी गई। आन्दोलनों में स्त्रियों की सहभागिता ने पर्दा प्रथा को समाप्त कर दिया।

(v) शिक्षा का प्रसार — राजा राममोहन राय से लेकर गाँधी जी तक सभी सुधारकों ने यह महसूस किया था कि भारतीय समाज में सामाजिक और धार्मिक पतन का मुख्य कारण समाज में व्याप्त भारी अज्ञानता और अशिक्षा है। सुधार आन्दोलनों द्वारा स्त्री शिक्षा पर बल दिया गया। निम्न और पिछड़ी हुई जातियों को शिक्षा की सुविधाएँ मिलने से ही उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो सका।


8. बाजार किस प्रकार एक सामाजिक संस्था है? 

उत्तर ⇒  बाजार सभी तरह के सरल, जटिल और आधुनिक समाजों की विशेषता रही है। निम्नांकित बिंदुओं के आधार पर एक सामाजिक संस्था के रूप में बाजार के औचित्य को समझा जा सकता है—

(i) मनुष्य का जीवन जब बहुत सरल और आदिम था तब भी जीवनयापन के लिए लोग आर्थिक क्रियाएँ करते थे। उस समय भी वस्तुओं की अदला-बदली के रूप में विनिमय का कार्य होता था। हाटों और मेलों के रूप में बाजार का समय और स्थान सुनिश्चित थे। वर्तमान बाजार परंपरागत बाजारों का ही एक विकसित रूप है। इस प्रकार इन्हें सामाजिक संबंधों की व्यवस्था से अलग करके नहीं समझा जा सकता।

(ii) बाजार व्यवस्था आर्थिक लाभ और प्रतिस्पर्द्धा के नियमों पर आधारित होती है। किसी भी समाज में आर्थिक प्रतिस्पर्द्धा और लाभ समाज के नैतिक नियमों से प्रभावित होते हैं।

(iii) आज सभी बाजार श्रम विभाजन की प्रक्रिया पर आधारित है। जैसे-जैसे छोटे और सरल बाजार बड़े और जटिल बाजारों में बदलते जा रहे हैं, श्रम-विभाजन की प्रक्रिया का भी विस्तार होता जा रहा है। श्रम विभाजन मूल रूप से एक सामाजिक तथ्य है जिसे दुर्खीम ने बहुत विस्तार के साथ स्पष्ट किया है।

(iv) वर्तमान युग में बाजार का रूप बैंकिंग प्रणाली, शेयर बाजार तथा बड़ी-बड़ी कंपनियों की आर्थिक क्रियाओं के रूप में देखने को मिलता है। इन सभी क्रियाओं पर आयकर, बिक्रीकर, सेवाकर और बहुत से दूसरे नियमों के द्वारा नियंत्रण रखा जाता है।

(v) एक सामाजिक संस्था के रूप में बाजार को किसी समाज की संरचना से अलग करके नहीं समझा जा सकता। प्रत्येक समाज में व्यक्ति की आर्थिक क्रियाएँ उन मूल्यों से प्रभावित होती है जिन्हें एक विशेष समाज की संरचना में उपयोगी और महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। बाजार उत्पादन श्रम और रोजगार का एक विशेष रूप है। इसका संबंध जीवन निर्वाह की मौलिक आवश्यकता है। सभी समाजों में जीवन का निर्वाह सामाजिक आवश्यकताओं से जुड़ा होता है।


9. बाजार से आप क्या समझते हैं ? बाजार प्रणाली के प्रमुख तत्त्वों को स्पष्ट करें। 

उत्तर ⇒  एक संस्था के रूप में बाजार एक सामाजिक प्रणाली है। बाजार में खरीददार और विक्रेता के बीच कुछ नियमों के अंतर्गत ही अंतक्रियाएँ होती हैं। इसका अर्थ है कि बाजार क्रेताओं ·और विक्रेताओं की आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र होने के साथ ही उनके सामाजिक संबंधों को भी प्रभावित करता है। बाजार वह व्यवस्था है जिसमें विनिमय और सौदेबाजी की विशेषताएँ पायी जाती हैं। यह विनिमय चाहे वस्तु के रूप में हो अथवा मुद्रा के माध्यम से जब क्रेता और विक्रेता अपनी-अपनी शर्तों पर एक दूसरे को राजी होने के लिए तैयार करते हैं। बाजार प्रणाली के तत्त्वों को निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है

(i) विनिमय के लिए वस्तुएँ — बाजार का आवश्यक तत्त्व यह है कि कुछ वस्तुएँ विनिमय के लिए उपलब्ध हों। यह वस्तुएँ भौतिक और अभौतिक दोनों तरह की हो सकती है। जैसे— श्रम या लोगों की योग्यता और कुशलता अभौतिक वस्तुएँ हैं, जबकि व्यक्ति के दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुओं का रूप भौतिक होता है।

(ii) प्रतिस्पर्द्धा ( Competition)– प्रतिस्पर्द्धा बाजार का एक आवश्यक तत्त्व है, क्योंकि इसी के द्वारा विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य तय होता है। समाजवादी अर्थव्यवस्था में राज्य द्वारा प्रतिस्पर्द्धा पर नियंत्रण रखा जाता है, लेकिन पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्द्धा का उद्देश्य उत्पादकों द्वारा अपनी वस्तुओं से अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करना होता है।

(iii) श्रम विभाजन – एक बाजार तभी व्यवस्थित बनता है, जब किसी वस्तु या सेवाओं से संबंधित विभिन्न कार्य उन लोगों में बाँट दिये जाते हैं, जिन्हें अपने-अपने क्षेत्र के कार्य का विशेष ज्ञान होता है। लोगों की योग्यता और कुशलता को बढ़ाने में भी इसकी भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है।

(iv) लाभ तथा सम्पत्ति – जब किसी मूल्यवान वस्तु पर व्यक्ति के अधिकार को मान्य दी जाती है, केवल तभी हम उस वस्तु को व्यक्ति की सम्पत्ति कहते हैं। सम्पत्ति मूर्त्त और अमूर्त्त दोनों तरह की हो सकती है। जैसे—मकान, भूमि, गहने मूर्त्त सम्पत्तियाँ हैं, जबकि किसी फर्म की साख (goodwill) या ट्रेडमार्क सम्पत्ति के अमूर्त रूप हैं। सम्पत्ति ही वह आधार जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी आर्थिक शक्ति को बढ़ाकर बाजार में विभिन्न प्रकार के लाभ प्राप्त करता है।

Sociology Class 12 important Questions 2024 PDF in Hindi


10. कानून क्या है? कानून के विभिन्न स्रोतों का उल्लेख करें।

उत्तर ⇒  व्युत्पत्ति की दृष्टि से, अंग्रेजी भाषा का शब्द (Law) प्राचीन ट्यूटानिक शब्द ‘लैग’ से निकला है जिसका अर्थ है किसी वस्तु को सम्यक रूप में रखा जाना या लगाना है। इस कारण कानून सकारात्मक या आरोपित वस्तु है। यह कोई निर्धारित की गई चीज है। कानून के निम्नलिखित स्रोत हैं–

(i) रीति-रिवाज — हर समाज में कानून का प्राचीनतम रूप लोगों की सुस्थापित प्रथाओं में ढूँढ़ा जा सकता है। एक बार जो कोई प्रथा शुरू हो जाती है, तो वह क्रमिक किन्तु अदृश्य रूप में अपनी उपयोगिता के कारण विकसित होती रहती है। कालान्तर में कोई प्रथा व्यवहार बन जाती है, पर्याप्त समय तक चलने के बाद पक्का रिवाज बन जाती है।

(ii) धर्म – रीति-रिवाज के स्रोत से धर्म का स्रोत संबंधित है। इसकी मान्यता लोगों के धर्मग्रंथों में पाई जाती है। प्राचीन काल से लोगों ने कुछ अतिप्राकृतिक अभिकरण की शक्तियों में अपनी आस्था रखी है और उन्होंने लोगों के व्यवहार के आचरण के लिए नियम निर्धारित करने का प्रयास किया है ताकि देवताओं के प्रति उनमें आदर या सम्मान की भावना प्रकट हो ।

(iii) न्यायिक निर्णय — सभ्यता के विकास के साथ-साथ जैसे-जैसे सामाजिक संगठन की प्रक्रिया अधिक जटिल होती गई, रीति-रिवाजों की शक्ति भी कम होती गई। किसी रिवाज के स्वरूप के बारे में लोगों के विवादों को समुदाय के सबसे बुद्धिमान लोगों के सामने पेश किया जाता था जो अपना निर्णय देकर विवादस्पद मुद्दों को सुलझा देते थे। इस प्रकार दिये गये निर्णय भविष्य के मार्गदर्शन के लिए एक नजीर बन गये।

(iv) कानूनी टीकाएँ — प्रत्येक देश में कानून के प्रसिद्ध ज्ञाता कठिन कानूनों के अर्थ को स्पष्ट रूप से समझाने के लिए कानून की व्याख्या करते हुए ग्रंथ रचना करते हैं, जिन्हें कानूनी टीकाएँ कहा जाता है। न्यायशास्त्रियों और विधिशास्त्रियों की ये टीकाएँ भी कानून का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत होती हैं। न्यायालयों में न्यायाधीश इन टीकाओं को मान्यता देते हैं तथा अपने निर्णयों में इनका आदर के साथ उल्लेख करते हैं। इस प्रकार कानून की ये शास्त्री टीकाएँ कानून के विकास में सहायक होती हैं।


11. भारत के मुख्य जनजातीय आंदोलनों की विवेचना करें। अथवा, जनजातीय आंदोलन पर टिप्पणी लिखें। 

उत्तर ⇒  भारत के मुख्य जनजातीय आंदोलन इस प्रकार हैं—

(i) संथाल विद्रोह– औपनिवेशिक शासन व्यवस्था तथा शोषण के खिलाफ सिद्धू कान्हू द्वारा संचालित संथाल जनजाति के लोगों ने इसका सूत्रपात किया।

(ii) बिरसा आंदोलन — इस आंदोलन के नेता बिरसा मुण्डा थे। इन्होंने आदिवासियों में जनमत का निर्माण किया और 25 दिसम्बर, 1899 को इस आंदोलन को शुरू किया।

(iii) तानाभगत आंदोलन इस आंदोलन की शुरूआत 1914 में हुई। इसका नेतृत्व जतरा भगत ने किया। यह आंदोलन कृषि अर्थव्यवस्था, जनजातीय संस्कृति तथा असमानता से संबंधित था।”

(iv) झारखंड आंदोलन – स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस आंदोलन की शुरुआत हुई। विभिन्न राजनीतिक तथा सांस्कृतिक संगठनों द्वारा यह आंदोलन चलाया गया, जिसका उद्देश्य अलग झारखंड राज्य की माँग था। इस आंदोलन के फलस्वरूप 15 नवम्बर, 2000 को झारखंड राज्य की स्थापना की गई।

(v) बोडो आंदोलन — असम के बोडो भाषाई जनजातियों ने पृथक् राज्य की स्थापना के लिए बोडो आंदोलन की शुरुआत 1950 में की जो आज भी जारी है। उपर्युक्त आंदोलनों के अलावा नागा आंदोलन, मिजो आंदोलन, खासी विद्रोह, झील भगत आंदोलन आदि प्रमुख जनजातीय आंदोलन हैं।


12. सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों के समस्याओं को दूर करने के लिए क्या उपाय किए गए हैं? 

उत्तर ⇒  भारत के संविधान में इनके विकास के लिए विभिन्न प्रावधान किये गये हैं। सरकार ने इनके लिए समय-समय पर राष्ट्रीय आयोगों की भी स्थापना की। उनके लिए निःशुल्क कोचिंग की व्यवस्था की गयी है। आर्थिक विकास के लिए एक वित्त निगम की स्थापना की गयी। अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित शिक्षण संस्थाओं के संचालन में भी उन्हें स्वायत्ता दी गयी है। अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए 5 सूत्री कार्यक्रम तैयार किया गया है। इसका संबंध मुख्यतः सांप्रदायिक दंगे से उत्पन्न परिस्थितियों का समाधान करना, सरकारी सेवाओं में अल्पसंख्यकों को समुचित प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था करना तथा उनके सामाजिक आर्थिक विकास के लिए उपाय करना है।

12th Sociology Ka Subjective Question Paper 2024


Class 12th Sociology ( लघु उत्तरीय प्रश्न )
 UNIT – ISociology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 1
 UNIT – IISociology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 2
 UNIT – IIISociology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 3
 UNIT – IVSociology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 4
 UNIT – VSociology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 5
 UNIT – VISociology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 6
 UNIT – VIISociology ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART – 7
 BSEB Intermediate Exam 2022
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 Class 12th Arts Question  Paper
 1इतिहास   Click Here
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