Political Science Long Question Answer In Hindi | Political Science Ka Question 12th

Political Science Long Question Answer In Hindi 2024 :-  दोस्तों यदि आप Class 12th Exam Political science Question की तैयारी कर रहे हैं तो यहां पर आपको Political Science Ka Subjective Ka Question दिया गया है जो आपके Political Science 12th Question And Answer pdf के लिए काफी महत्वपूर्ण है | 


Political Science Long Question Answer In Hindi

1. प्रजातंत्र में नागरिक समाज की क्या भूमिका है? (What is the role of Civil Society in Democracy ? )

उत्तर ⇒लोकतंत्र में नागरिक समाज शब्द राजनीतिक, प्रशासनिक और बौद्धिक क्षेत्रों में काफी प्रचलित हो गया है। परंपरागत रूप से राज्य और नागरिक समाज दोनों शब्दों का इस्तेमाल एक-दूसरे के लिए किया जाता है और उनको समानार्थी माना जाता है। प्रजातंत्र में नागरिक समाज सरकार द्वारा समर्थित संरचनाओं और स्वैच्छिक नागरिक और सामाजिक संगठनों और संस्थानों की समग्रता से बना है। कानून राज्य एवं नागरिक समाज की समानता को अपनी सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता मानता है। नागरिक समाज संगठन कल्याण एवं विकास प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लोकतंत्र में नागरिक समाज अनेक भूमिकाओं को निभाते हैं। कुछ भूमिकाएँ निम्नलिखित हैं

(i) वे गरीबों को सामाजिक आर्थिक विकास के लिए संगठित और गतिशील करते हैं। वे

(ii) सूचना का प्रसार करते हैं और लोगों की वेहतरी के लिए सरकार द्वारा शुरू की गई योजनाओं, कार्यक्रमों और परियोजनाओं के बारे में जानकारी देते हैं।

(iii) वे प्रशासनिक प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी का रास्ता खोलते हैं।

(iv) नागरिक समाज प्रशासन तंत्र के लोगों की भागीदारी का रास्ता खोलते हैं।

(v) नागरिक समाज सरकार को लोगों की आवश्यकता एवं आकांक्षा के प्रति अधिक उत्तरदायी बनाते हैं।

(vi) नागरिक समाज स्थानीय विकास के लिए स्थानीय संसाधनों के उपयोग का रास्ता साफ करते हैं। इस प्रकार समुदायों को आत्म निर्भर बनाते हैं।

(vii) नागरिक समाज सार्वजनिक हित के पहरेदार का काम करते हैं।

(viii) वे स्वंसेवा के सिद्धांत को सुदृढ़ बनाते हैं।

(ix) नागरिक समाज विभिन्न राजनीतिक विषयों पर चर्चाएँ चलाकर वे लोगों में राजनीतिक चेतना पैदा करते हैं।

(x) वे लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की पहचान करने में सरकार की मदद करते हैं।


2. बिहार की राजनीति में जाति की भूमिका का वर्णन करें। (Describe the role of caste in Bihar politics.)

उत्तर ⇒ बिहार की राजनीति में जाति हमेशा से एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। बिहार की राजनीति का एक वास्तविक पहलू यह है कि सामाजिक समुदाय के गठन का एक मात्र आधार जाति है। सभी जातियों के समुदाय के लोगों का अलग-अलग हित होते हैं। सभी समुदाय के लोग अपना-अपना हित साधने का प्रयास करते हैं और सभी जातीय समुदाय के लोग राजनीति को प्रभावित करते हैं। बिहार की राजनीति में जाति की महत्त्वपूर्ण भूमिका है जो इस प्रकार हैं

(i) चुनाव में जातिगत आधार पर उम्मीदवारों का चयन होता है। राजनीतिक दल का गठन चाहे किसी विचारधारा पर हुआ हो, पर चुनाव के समय उम्मीदवारों का चयन जातिगत आधार पर होता है। क्षेत्र में चुनाव लड़ता है उस चुनाव क्षेत्र में जातिगत भावनाओं को प्रायः उकसाया जाता है ताकि

(ii) चुनाव के समय जातिय आधार पर गोलबंदी किया जाता है। उम्मीदवार जिस चुनाव सभी मतदाता जातिय आधार पर गोलबंद होकर मतदान करें।

(iii) अन्य राष्ट्रों की तरह बिहार में भी मंत्रिमंडल से लेकर ग्राम पंचायत स्तर तक जातियों के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया जाता है।

(iv) जातिगत हितों के संरक्षण एवं पोषण के लिए जातिय आधार पर दबाव समूह का गठन किया जाता है। जैसे कायस्थ जाति का कायस्थ सभा, कुर्मी जाति के लिए भूमि सेना, यादव जाति के लिए लोरिक सेना आदि ऐसे ही दबाव समूह हैं जो संबंधित जाति के लिए काम आते है। बिहार के राजनीति में जाति की भूमिका का अन्य कारण भी है जो असरदार होते हैं जैसे— उम्मीदवार का लोगों से जुड़ाव, व्यक्तिगत संबंधित दलों की छवी स्थानीय समस्या आदि ।


3. बिहार को विशेष राज्य का दर्जा क्यों मिलना चाहिए? (Why should Bihar be given status of a special state?).

उत्तर ⇒ विशेष राज्य का दर्जा अभी तक पर्वतीय दुर्गम क्षेत्रों, सीमावर्ती, आदिवासी बहुल और गरीब राज्यों को ही मिलने का प्रावधान है। अभी तक राज्य एवं केन्द्रशासित प्रदेशों को मिलाकर कुल 12 राज्यों की विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ है। कुछ राज्य ऐसे हैं जो समय-समय पर विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त करने के लिए माँग करता रहा है। ऐसे राज्यों में बिहार, आंध्र प्रदेश आदि का नाम लिया जा सकता है। बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में माँगे जोर से उठती रही है तथा इसे एक मिशन के रूप में लेकर प्रत्येक स्तर पर बहस प्रस्तुत की है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 371 में विशेष राज्य का दर्जा प्रदान करने के लिए प्रावधान मिलता है। जिस राज्य को विशेष राज्य का दर्जा प्रदान किया जाता है उस राज्य को राजकीय सहायता का 90% अनुदान का मात्र 10% हीं ऋण के रूप में लौटाना पड़ता है। विशेष राज्य का दर्जा उसी राज्य को प्रदान किया जाता है जो राज्य गाडगिल फार्मूला द्वारा निर्धारित शर्तों को पूरा करता है। गाडगिल फार्मूला का ये शर्त है— जनसंख्या का घनत्व कम होना, उस राज्य में आदिवासियों की जनसंख्या ज्यादा हो और उनकी प्रधानता हो। वह राज्य अंतर्राष्ट्रीय सीमा से सटा हो एवं उसका सामाजिक महत्त्व हो। उस राज्य की आर्थिक एवं वितीय स्थिति दयनीय हो तथा वह राज्य पर्वतीय एवं दुर्गम क्षेत्र का हो। जहाँ तक बिहार राज्य का इस संदर्भ में विश्लेषण किया जाय तो यह राज्य गाडगिल फार्मूला के कई शर्तों को पूरा करता है। जैसे बिहार की लगी सीमा नेपाल से जुड़ा हुआ है और नेपाल एक वफर स्टेट होने के कारण उसका अलग ही सामाजिक महत्त्व है। अतः बिहार का सामरिक महत्त्व व्यापक है। बिहार की आधारभूत बेहद कमजोर है। इसके लिए केन्द्र सरकार की अहम भूमिका है। झारखण्ड से अलग होने के कारण इसका हालत बेहद खस्ता है। इसलिए यह अत्यंत बेहद गरीब राज्य है। इसे शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, आवास एवं रोजगार के क्षेत्र में अभी बहुत काम करना है।इस तरह उपर्युक्त बातों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि बिहार राज्य को विशेष राज्य का दर्जा मिलना चाहिए।


4. बिहार के संपूर्ण क्रांति का मूल्यांकन करें। (Evaluate the total revolution of Bihar.)

उत्तर ⇒ 1974 से 1980 का भारतीय इतिहास लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नाम से जाना जायेगा। भारत में 1970 के दशक का प्रारंभ एकदलीय वर्चस्व की पराकाष्ठा के रूप में हुआ। ” इंदिरा इज इंडिया” का नारा दिया जाने लगा। स्वाभाविक था कि सत्ता का दुरुपयोग होने लगा। 18 मार्च, 1974 को बिहार में इसी सत्ता दुरुपयोग के विरोध में छात्र आंदोलन प्रारंभ हुआ। इस आंदोलन को नेतृत्व देने के लिए जयप्रकाश नारायण आगे आये। 5 जून, 1974 को गाँधी मैदान पटना की महती सभा में उन्होंने ‘संपूर्ण क्रांति’ का आह्वान किया। उनकी मान्यता थी कि लोकतंत्र पटरी से उतर चुकी है। जिन मूल्यों एवं आदशों के लिए स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी गई वे भुलाये जा रहे हैं। शक्तियों का दुरुपयोग आम बात हो गई है। सत्ता का केन्द्रीकरण हो रहा है। प्रधानमंत्री की भूमिका तानाशाह की हो गई है। संसद भी गूँगी हो गई है क्योंकि विपक्ष कमजोर है। इसी पृष्ठभूमि में उन्होंने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। उन्होंने संपूर्ण क्रांति का अर्थ बतलाया – ‘व्यवस्था में आमूल परिवर्तन — राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, नैतिक आदि सभी क्षेत्रों में परिवर्तन।’ उन्होंने इसे आजादी की दूसरी लड़ाई की संज्ञा दी। आंदोलन चलता रहा इसका दायरा बिहार से बाहर निकलकर संपूर्ण भारत तक फैल गया। संपूर्ण क्रांति के दूरगामी प्रभावों को देखा जा सकता है। भारत में पहली बार द्विदलीय स्थिति की संभावना उभरी। सभी प्रजातांत्रिक प्रक्रिया, संविधान की भावना का आदर, न्यायपालिका की स्वायत्तता आदि के मामले में पटरी से हटी व्यवस्था को पुनः बहाल किया गया। ऐसा लगने लगा कि कुछ दिनों में सचमुच संपूर्ण क्रांति का सपना साकार हो जायेगा। किन्तु राजनीतिक कारणों से ऐसा हो नहीं पाया। ढाई वर्षों के बाद ही जनता पार्टी में फूट हो गई। जिसका लाभ कांग्रेस को मिला और वह पुनः सत्ता में 1980 में वापस आ गई। जयप्रकाश नारायण काफी बीमारी के कारण सत्ता को सही दिशा निर्देश नहीं दे सकते थे। जयप्रकाश नारायण के अनुयायी भी सत्ता के लोभ में मूल्यों एवं आदर्शों को भूलने लगे। इस प्रकार संपूर्ण क्रांति अपने लक्ष्य को तो प्राप्त नहीं कर सका, किन्तु यह दिखला दिया कि जनतंत्र सतत् जागरूकता की स्थिति में ही काम कर सकता है। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व ने एक बहुत बड़ी उम्मीद बना दिया कि जब कभी लोक मुद्दे को लेकर राजनीतिक नेतृत्व आगे बढ़ेगा, लोग उनके साथ होंगे। हाल में अन्ना हजारे के जन लोकपाल के मुद्दे पर उपजे जन समर्थन को इसी रूप में देखा जा सकता है।


5. राजनीतिक दल-बदल क्या है? इस पर रोक के लिए क्या उपाय किये गये ? (What is defection ? What steps were taken to ban it ? )

उत्तर ⇒ विधायिका का कोई सदस्य तथा सांसद, विधायक जब अपना पार्टी छोड़कर किसी लालचवश या किसी कारण से दूसरे दलों में चले जाते हैं, तो सरकार बनती है या गिरती है, उसे राजनीतिक दल-बदल कहते हैं। दूसरे शब्दों में, सत्ता प्राप्त करने के लिए विधायिका के सदस्य सांसद या विधायक स्वयं पार्टी बनाकर किसी गठबंधन में शामिल हो जाता है इसके पीछे मूलकारण किसी-न-किसी रूप सत्ता प्राप्त करना है। 1967 ई० के चुनाव के बाद ऐसा कार्य बहुत तेजी से हुआ । उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार, मध्य-प्रदेश, उड़ीसा जैसे राज्यों में यह कार्य काफी तेजी से हुआ और कांग्रेस की सरकारें गिर गईं। उनकी जगह गठबंधन सरकारें बनीं। याद हो कि खगड़िया सांसद, रामशरण यादव जनता दल से अलग होकर कांग्रेस की पी० वी० नरसिम्हा राव सरकार को बचाया, तो रामविलास पासवान सिर्फ एक वोट से अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को गिराकर केंद्र की सत्ता से अलग कर दिया, ये सब राजनीतिक दल-बदल का ही रूप है। इस प्रकार राजनीतिक दल-बदल को रोकने के लिए भारतीय संविधान का 52 वाँ संशोधन दल-बदल विरोधी कानून संसद ने पारित किया। इस कानून के तहत कोई भी दल का सदस्य यदि पार्टी गतिविधि या दल के अध्यक्ष का उल्लंघन करता है, तो पार्टी दो तिहाई बहुमत से संबंधित सांसद या विधायक के विरुद्ध प्रस्ताव पारित कर देता है तो उस व्यक्ति का सदस्यता समाप्त हो जाता है। अतः इस कानून के बन जाने से सांसद या विधायक अपने दल के विरुद्ध जल्दी दल-बदल नहीं कर पाते हैं यह लोकतंत्र का मजबूत हथियार साबित हुआ। दल बदल विरोधी कानून के द्वारा इस प्रकार के राजनीति को रोकने का उपाय किया गया।

Political Science Ka Question 12th


6. लोकतंत्र के लिए राजनीतिक दल क्यों आवश्यक हैं? (Why political parties are essential for democracy ? )

उत्तर ⇒ राजनीतिक दल लोकतंत्र का पहिया है, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था को गति प्रदान करता है। राजनीतिक दलों के द्वारा ही जनता की भावनाओं को इकट्ठा कर सरकार के सामने रखा जाता है। देश में निष्पक्ष एवं स्वतंत्र चुनाव हो इसके लिए राजनीतिक दल आवश्यक है। राजनीतिक दल ही देश की समस्याओं और आवश्यकताओं को सरकार के सामने रखती है जिसके आधार पर सरकारें योजना बनाती है। राजनीतिक दल सरकार पर नियंत्रण रखने, जनता के प्रति जवाबदेह बनाने, सरकार की नीतियों एवं निर्णयों पर समर्थन एवं विरोध करने के उपकरण के रूप में काम करती है। राजनीतिक दल ही देश के लिए भावी एवं वैकल्पिक योजनाएँ तैयार करती है। इन्हीं सब बातों के आधार पर कहा जा सकता है कि लोकतंत्र में राजनीतिक दल आवश्यक है।


7. भारत में एकल आधिपत्यशाली दल व्यवस्था को परिभाषित करें। (Define the system of single dominant party.)

उत्तर ⇒ भारत में साम्यवादी व्यवस्था के विपरीत बहुदलीय व्यवस्था है। फिर भी स्वतंत्रता के बाद भारत में सत्ता पर 1970-80 के दशक तक एक दल कांग्रेस का प्रभाव रहा। एक ही दल द्वारा राजनीति में सक्रीय रूप से भाग लेना, चुनावों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना, सरकार बनाना, नीतियों के निर्माण तथा क्रियान्वयन आदि में कांग्रेस की भूमिका रही है। इस प्रकार स्वतंत्र भारत की राजनीतिक व्यवस्था में एकल आधिपत्य या एक दलीय वर्चस्व की व्यवस्था के रूप में देखा जाता है। एक दलीय व्यवस्था में सरकार एवं दल का आधिपत्य होता है। विपक्षी दल कमजोर होता है। संघीय सरकार की स्थिति मजबूत एवं राज्य की सरकार की स्थिति कमजोर होती है। संविधानेतर शक्तियाँ दल विशेष के पास होती है। एक दलीय व्यवस्था लोकतांत्रिक व्यवस्था में ठीक नहीं माना जाता है। लोकतंत्र में शासन का संचालन सभी के सहयोग एवं सबके लिए होता है।

8. क्षेत्रीय दलों के उदय के कारणों पर प्रकाश डालें। (Throw light on causes of rise of Regional parties.)

उत्तर ⇒ भारत में आजादी के पहले से ही क्षेत्रीय दल मौजूद थे। स्वतंत्र भारत में भी क्षेत्रीय दल की उपस्थिति बनी रही। परंतु 1961 के तीसरे आम चुनाव के बाद भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का उभार तेजी से हुआ । भारत में क्षेत्रीय दलों के उदय के निम्न कारण बताए जा सकते हैं

(i) कांग्रेस के नेतृत्व का पतन – 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद कांग्रेस के पास कोई महान नेता नहीं था। कामराज की अध्यक्षता में पार्टी काम कर रही थी। पहले शास्त्री और फिर इंदिरा को प्रधानमंत्री बनाया गया। 1975-77 के आपातकाल ने कांग्रेस शासन को इतना बदनाम कर दिया कि 1977 के चुनावों में उत्तर भारत से कांग्रेस का सफाया हो गया।

(ii) क्षेत्रीय असंतुलन — भारत विशाल देश है जिसके कुछ क्षेत्र बहुत सम्पन्न व विकसित हैं तो कुछ क्षेत्र बहुत पिछड़े हुए हैं। सत्ताधारी कांग्रेस के नेताओं ने इस ओर ध्यान नहीं दिया जिससे यह क्षेत्रीय असंतुलन अधिक तीव्र हो गया । चतुर क्षेत्रीय नेताओं ने लोगों के असंतोष को जगाया तथा उससे लाभ उठाया।

(iii) क्षेत्रवाद का सम्प्रदायवाद, जातिवाद व नस्लवाद से समागम चतुर क्षेत्रीय नेताओं ने अपनी स्थिति को शक्तिशाली बनाने हेतु सम्प्रदायवाद, जातिवाद, जनजातिवाद तथा नस्लवाद के तत्वों से अपना समागम स्थापित किया।

1976 के चुनावों के बाद ऐसा बड़ा परिवर्तन देखने में आया कि अनेक क्षेत्रीय दल केंद्र की गठबंधन सरकार में शामिल हो गए। प्रधानमंत्री वाजपेयी के मंत्रिमंडल में नेशनल कान्फ्रेंस, अन्ना डी० एम० के०, तेलुगु देशम व असम गण परिषद् शामिल थे तो मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में सिक्किम लोकतांत्रिक फ्रण्ट, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, तेलंगाना राष्ट्रीय समिति व द्रविड़ मुनेत्र कषगम की सहभागिता देखी जा सकती है। अब यह तथ्य निश्चित हो चुका है कि क्षेत्रीय दलों की भूमिका के बिना भारतीय राजनीति का व्यवहारपरक अध्ययन नहीं किया जा सकता।


9. भारतीय विदेश नीति के मुख्य आधार क्या है? (What are the main bases of Indian foreign policy?)

उत्तर ⇒ विदेश नीति का तात्पर्य उस नीति से है जो एक राज्य द्वारा अन्य राज्यों से संबंध स्थापित करने के लिए निर्धारित की जाती है। आधुनिक युग में देशों के विदेश नीति समय और परिस्थिति के अनुसार बदलते रहती है। परन्तु भारतीय विदेश नीति का आधार संविधान निर्माण के समय ही तय कर दिया गया था। भारतीय विदेश नीति का मुख्य आधार निम्नलिखित हैं

(i) गुट निरपेक्षता भारतीय विदेश नीति का मुख्य आधार है। भारत द्वितीय विश्वयुद्ध के समय दोनों गुटों से अलग रहते हुए गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाया है।

(ii) भारत साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद तथा नस्लवाद जैसे शोषण प्रवृत्तियों का हमेशा विरोध करता रहा है। जिसे विदेश नीति का प्रमुख आधार बनाया गया है।
(iii) भारतीय विदेश नीति का मुख्य आधार नस्लवादी भेदभाव का विरोध रहा है। भारत नस्लों की समानता में विश्वास करता है तथा किसी भी नस्ल के लोगों से भेदभाव का पूर्ण विरोध करता है। अपनी विदेश नीति के सैद्धान्तिक आधार पर ही भारत ने दक्षिण अफ्रीका के नस्लवादी शासन की कड़ी आलोचना की है।

(iv) भारत गाँधीवादी सद्गुण के प्रभाव में भारत की विदेश नीति, झगड़ों के निपटारे के लिए शांतिपूर्ण साधनों में अपना पूर्ण विश्वास प्रकट करती है। (v) पंचशील सिद्धान्त का अर्थ है व्यवहार या आचरण के पाँच नियम । जिसे भारत के विदेश नीति का मुख्य आधार माना गया। भारत चीन के बीच 1954 में पंचशील समझौता पर हस्ताक्षर किये गए हैं।

(vi) भारतीय विदेश नीति का मुख्य आधार रहा है संयुक्त राष्ट्रसंघ तथा विश्वशांति के समर्थन करना। प्रारंभ से ही भारत संयुक्त राष्ट्र की विचारधारा का समर्थन तथा इसके क्रियाकलापों में सकारात्मक तथा रचनात्मक रूप से भाग लेता रहा है।

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10. भारत की सुरक्षा नीति के विभिन्न पहलुओं का वर्णन कीजिए। (Explain the different aspect of Security policy of India.)

उत्तर ⇒ भारत की सुरक्षा नीति के घटक- भारत एक ऐसा देश है जो दोनों प्रकार पारंपरिक और अपारंपरिक खतरों का सामना कर रहा है। ये खतरे सीमा के अंदर और बाहर दोनों ओर से हैं। भारत की सुरक्षा नीति के चार घटक हैं जो निम्नलिखित हैं(i) सैन्य क्षमता,(ii) अंतर्राष्ट्रीय नियमों और संस्थाओं को मजबूत करना,(iii) देश की अंदरूनी सुरक्षा समस्यायें,(iv) गरीबी और अभाव से छुटकारा ।

(i) सैन्य क्षमता-पड़ोसी देशों के हमलों से बचने के लिए भारत को अपनी सैन्य क्षमता को मजबूत करना जरूरी है। भारत पर पाकिस्तान के कई आक्रमण हुए हैं। दक्षिण एशियाई क्षेत्र में उसके चारों ओर परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं, इसलिए भारत ने 1974 और 1998 में परमाणु परीक्षण किया था।

(ii) अंतर्राष्ट्रीय नियमों और संस्थाओं को मजबूत करना— भारत ने अपने सुरक्षा हितों को बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय नियमों और संस्थाओं को मजबूत करने में सहयोग दिया है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एशियाई एकता, अनौपनिवेशीकरण और निरस्त्रीकरण के प्रयासों का समर्थन किया। भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ को अंतिम पंच मानने पर जोर दिया। उसका मानना है कि हथियारों और परमाणु शस्त्रों की दृष्टि से सभी देशों का समान अधिकार होना चाहिए। भारत ने नव-अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की माँग उठाई।

(iii) देश की अंदरूनी सुरक्षा और समस्यायें भारत की नीति का तीसरा महत्त्वपूर्ण घटक देश की अंदरूनी सुरक्षा समस्याओं से निपटने की तैयारी है। भारत के कई राज्यों – नागालैंड, मिजोरम, पंजाब और कश्मीर आदि राज्यों में अलगाववादी संगठन सक्रिय रहे हैं। इसलिए भारत ने राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने का प्रयास किया है। उसने देश में लोकतांत्रिक और राजनीतिक व्यवस्था का पालन किया है। उसने सभी समुदाय के लोगों और जन समूहों को अपनी शिकायतें रखने का मौका दिया है।

(iv) गरीबी और अभाव से छुटकारा – भारत ने ऐसी व्यवस्थायें करने का प्रयास किया है जिससे बहुसंख्यक नागरिकों को गरीबी और अभाव से छुटकारा मिल सके और नागरिकों के मध्य आर्थिक असमानता समाप्त हो सके।

12th Political Science Long Question


12th Political Science ( लघु उत्तरीय प्रश्न )
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